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को मृ॑ळाति कत॒म आग॑मिष्ठो दे॒वाना॑मु कत॒मः शंभ॑विष्ठः। रथं॒ कमा॑हुर्द्र॒वद॑श्वमा॒शुं यं सूर्य॑स्य दुहि॒तावृ॑णीत ॥२॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

ko mṛḻāti katama āgamiṣṭho devānām u katamaḥ śambhaviṣṭhaḥ | rathaṁ kam āhur dravadaśvam āśuṁ yaṁ sūryasya duhitāvṛṇīta ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

कः। मृ॒ळा॒ति॒। क॒त॒मः। आऽग॑मिष्ठः। दे॒वाना॑म्। ऊ॒म् इति॑ । क॒त॒मः॒। शम्ऽभ॑विष्ठः। रथ॑म्। कम्। आ॒हुः॒। द्र॒वत्ऽअ॑श्वम्। आ॒शुम्। यम्। सूर्य॑स्य। दु॒हि॒ता। अवृ॑णीत ॥२॥

ऋग्वेद » मण्डल:4» सूक्त:43» मन्त्र:2 | अष्टक:3» अध्याय:7» वर्ग:19» मन्त्र:2 | मण्डल:4» अनुवाक:4» मन्त्र:2


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (कः) कौन (देवानाम्) विद्वानों के बीच वा पृथिव्यादिकों में (मृळाति) सुख देता है (कतमः) कौनसा (आगमिष्ठः) अत्यन्त आनेवाला (उ) और (कतमः) कौनसा (शम्भविष्ठः) अत्यन्त कल्याण करनेवाला विद्वान् (कम्) किस (द्रवदश्वम्) शीघ्र चलनेवाले घोड़ों से युक्त (आशुम्) शीघ्रगामी (रथम्) रमण करने योग्य वाहन को (आहुः) कहते हैं (यम्) जिसको (सूर्य्यस्य) सूर्य्य की (दुहिता) कन्या के सदृश कान्ति (अवृणीत) स्वीकार करती है ॥२॥
भावार्थभाषाः - हे विद्वानो ! हम लोग किस सुखकारक निरन्तर आनेवाले उत्तम प्रकार कल्याणकारक पदार्थ तथा अग्नि और जल के द्वारा चलनेवाले वाहन को उत्तम प्रकार जानें, इस प्रकार दो मन्त्रों में कहे हुए प्रश्नों के ये उत्तर हैं। जो जैसे प्रातर्वेला उषा सूर्य्य को वैसे अध्यापक से सुनता, वायु के सदृश विद्या का सेवन करता है और पतिव्रता स्त्री के सदृश विद्यायुक्त स्त्री प्रशंसा के योग्य पति को स्वीकार करती है, जो परोपकारी है, वह सुख करनेवाला, बिजुली अतीव आनेवाली, परमेश्वर अत्यन्त कल्याण करनेवाला, विद्वानों के मध्य में विद्वान्, जल-अग्नि के कलाकौशल से चलाया गया विमान आदि यान प्रशंसा के योग्य होता है, ऐसा जानो ॥२॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ॥

अन्वय:

को देवानां मृळाति कतम आगमिष्ठः उ कतमः शम्भविष्ठो देवः कं द्रवदश्वमाशुं रथमाहुर्यं सूर्य्यस्य दुहितावृणीत ॥२॥

पदार्थान्वयभाषाः - (कः) (मृळाति) सुखयति (कतमः) (आगमिष्ठः) अतिशयेनागन्ता (देवानाम्) विदुषां मध्ये पृथिव्यादीनां वा (उ) (कतमः) (शम्भविष्ठः) अतिशयेन कल्याणकारकः (रथम्) रमणीयं यानम् (कम्) (आहुः) कथयन्ति (द्रवदश्वम्) द्रवन्तो द्रुतं गच्छन्तोऽश्वा यस्मिँस्तम् (आशुम्) सद्यो गामिनम् (यम्) (सूर्य्यस्य) (दुहिता) दुहितेव कान्तिः (अवृणीत) स्वीकुरुते ॥२॥
भावार्थभाषाः - हे विद्वांसो ! वयं कं सुखकरं भृशमागन्तारं सुष्ठु कल्याणकरं पदार्थमग्निजलाश्वरथं विजानीयामेति मन्त्रद्वयोक्तानां प्रश्नानामिमान्युत्तराणि। य उषा सूर्य्यमिवाऽध्यापकाच्छृणोति वायुमिव विद्यां सेवते पतिव्रतेव विदुषी प्रशंसनीयं पतिं वृणुते यः परोपकारी स सुखकरो विद्युदतिशयेनागन्त्री परमेश्वरोऽतिशयेन कल्याणकरो विदुषां मध्ये विद्वाञ्जलाग्निकलाकौशलेन चालितं विमानादियानं प्रशंसनीयं भवतीति विज्ञेयम् ॥२॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - हे विद्वानांनो ! आम्ही कोणते सुखकारक सतत येणारे कल्याणकारक पदार्थ व अग्नी-जलाद्वारे चालणारे वाहन उत्तम प्रकारे जाणावे. या प्रकारे दोन मंत्रात सांगितलेल्या प्रश्नांची उत्तरे ही आहेत. जशी प्रातर्वेला उषा सूर्याचे ग्रहण करते तसे जो अध्यापकाकडून ऐकतो, वायूप्रमाणे विद्येचे ग्रहण करतो व पतिव्रता स्त्रीप्रमाणे विद्यायुक्त स्त्री प्रशंसायोग्य पतीचा स्वीकार करते, जो परोपकारी असतो तो सुख देणारा, विद्युत अति शीघ्र गमन करणारी, परमेश्वर अत्यंत कल्याण करणारा, विद्वानांमध्ये विद्वान, जल-अग्नी कलाकौशल्याने चालविलेले विमान इत्यादी यान प्रशंसा करण्यायोग्य असते, हे जाणा. ॥ २ ॥